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Showing posts from 2016

अश्रु

कही आँख से निकला होगा कही अविरल बहता होगा दुख में सुख में अश्रुपूर्ण सी धारा कही कभी कुछ कहता होगा अश्रु बिंदु तुम्हारा नयनो में भर आता है अश्रु दीप बन सा हारा जी कर मरने तक का प्रण लेता कभी किसी हंसी के पीछे लहराता मधुरिम सा सहारा आज सुखों को देख है हँसता कभी दुख का राग सुनाता बहता अश्रु सा तारा आराधना राय आराधना राय  

नज़्म डर

गुलो - गुलज़ार की बातो से डर लगता है अब तो तेरे आने से भी डर लगता है वो जो रोनके बढ़ा रहे थे महफ़िल की उनकी रुसवाइयों से भी डर लगता है शाम थी शमा थी मय औ मीना भी बस उसे लब से लगाने से डर लगता है शज़र जो मेरे सर पर कल सरे शब रहा उस के कट जाने का भी डर लगता है आराधना राय

रोज़

रोज़ लगते है मेले मेरे दर पर  तेरी यादों के रोज़ अपने हाथो से कोई  तस्वीर पोछ देती हूँ रोज़ बता कर अश्क आखों से लुढकते है रोज़ सुबह मेरी पेशानी  पर महसूस करती हूँ रोज़ तूम को देख कर अनजान बनती हूँ रोज़ थोडा थोडा तूम पे रोज़ मरती हूँ तेरी यादे है तूम भी हो फिर भी तुम्हारे बिन यूँ ही जीती हूँ

अतुकांत कविता

तुमने लिख कर जो छोड़े है शब्द आस पास मेरे कही वो मेरी दिल की भट्टी में तप गए  के सुनहरे रंग में बिखर रहा था जो वजूद  उस से नाता जोड़ बैठी हूँ शब्दों से रिश्ता अपना टूटते दिल को थामने की हिम्मत  शब्दों ने  दी है कब से बैठी हूँ कुछ तूम फिर बोलो जानती हूँ नहीं बोल पाओगे तूम तुम्हारी शक्सियत में दिल में लिए बैठी हूँ चन्द शब्दों को नहीं पूरी ज़िन्दगी संभाल बैठी हूँ आराधना राय अरु

अच्छा होता

क्वार कार्तिक की धुप में तपने से अच्छा होता जेठ की दुपहरी सह लेते वकावाली खाने से अच्छा नीम कसली खा लेते मृत्यु की ठंडक सहने से बेहतर जीवन की गर्मी सह लेते सघन वृक्ष की छांव में गुम हो रहने से धुप- छांव सह लेते आराधना राय

घर

मेरे घर के आँगन में वो अपना घर बसती है कभी दाना , कभी कतरन वो खूब चुराती है चार दानो से खुश हो जाती है धड़कने दिल की वो बढाती है एक गिलहरी का घर है पेड़ के कोटर में अपने बच्चो को बड़ा कर फिर छोड़ देगी वो कल जो उसका था आज भी उसका कोटर होगा वो मुझे देख ना जाने क्या कह जाती है वो उसकी बाते में समझ नहीं पाती हूँ आराधना राय

दुनियाँ कविता अतुकांत

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साभार गुगल छांव - धुप सी है ये दुनियाँ क्या प्रेम प्रीत सी बंधी दुनियाँ चाहे स्वीकार करो ना करो अपने - अपने ध्रुवों पे अडिग गोल - गोल धूमती है दुनियाँ बोलो दो चाहे चुप तूम रहो  अपनी - नियति से  बंधे  सच - झूठ के बोल बोलते खानों और अलग खांचो में समय के बोल बोलती है दुनियाँ

ज़िन्दगी

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साभार गुगल टुकडो - टुकडों में  बंटी यह ज़िन्दगी  मिली है गुलाबी सर्द राते जैसे चादर में लिपटी हुई है मद्धम - मद्धम बदली है सर्दी तो  कभी गर्मी है नर्म तानो बानो से बुनी सात रंगों के रंग में रंगी काली, नीली कभी पीली ज़िन्दगी के ताने - बाने  है सुलझते- उलझते मन के तार कभी टूट कर जुड़ते है आशा , निराशा में बंध के चाँद सितारे आसमां रोते है दिन के चटकीले  रंगों में आंसू भी छिप से जाते है रात को शबनम बन कर मेरे मन पे तन पे गिरते है आराधना राय अरु

तूम पूछो मैं बतलाऊँ

तूम पूछो  मैं  बतलाऊँ मैं कहूँ तूम सुनते जाओ जीवन की रीत अनोखी सी जिसमें  यूँ ही बहती जाऊँ तूम पूछो  मैं  बतलाऊँ चाँद अकेला ही रहता है या ताका करता है धरती को चन्द्र- चकोर की बातों की प्रीत क्या तूम को सिखलाऊँ तूम पूछो  मैं  बतलाऊँ नहीं नाचता मयूर सा मनवा थाप नहीं जब धड़कन की तूम पूछो  मैं  बतलाऊँ बदल - बिजुरी का क्या नाता क्या दिल की बात समझाऊँ बदरा बोले बिजली चमके  तब मन मयूर सा झनके  बोलो प्रीत की रीत समझाऊँ तूम पूछो  मैं  बतलाऊँ आराधना राय

अतुकांत

पेड़ की सूखी डाली पे एक हरी पत्ती को देखा है तुमने उम्मीद है किसी के जीवन जीने की उसी पेड़ पर बसेरा चिडियों का देखा है तोड़ कर सीमायें अनंत को पा जाती है अपना बसेरा वो तो खुद ही बनाती है पेड़ की सूखी डाली खुश है पेड़ भी खुश था उडान के बीच पर झंझावातो पर नजर किस की थी सुना है वही पेड़ कल रात तूफान में मुस्तेदी से लड़ा था अडिग अकेला ना जाने कितनी बार हर वार से बचा था पेड़ सुबह मुस्कुरा रहा था डाली अब सूखी नहीं थी  जीवन और संधर्ष के बीच मुस्कुरा रही थी

अतुकांत

ज़ज्बात बोलते हैआँखों के तले मन में ज़ज्बातो के तूफान पले खामोश हो घंटो तुम्हे सुनती हूँ तेरा अहसास होने का नहीं क्या वजूद को अपने साथ बुन लेती हूँ तूम बोलते हो में सुन तुम्हे लेती हूँ   आराधना राय अरु 

किसे बतलाऊँ

तूम से ना करते तो किस से शिकायत करते उम्मीद तुम्ही से थी तो किस से तकाज़ा करते माना के सितम कम ना हुए तुम्हारे इन वादों से तूम से बांधी डोर आस की जीने- मरने के बाद की दिल की बाते  क्या इकरार की इनकार तुमसे की बंधन तूम से हर बंधा था अरमान का या प्यार का  तुम्ही को जाना था धरती औरआसमान का रिश्ता अब साथ नहीं है यदपि तुम्हारा बोलो किसे बतलाऊँ आराधना रायअरु

ना आ सकूँगी

मेरी  सोच के परदे पे तूम रोज़ आ जाते हो मुझे अपनी बेबसी का कारण रोज़ बनाते हो  तेल से हाथ जल गया कल करछुल छुट गई यही रामायण- महाभारत धर की बताते  हो  कह चुकी हूँ प्रिय ना लौट कर तुम्हारे लिए भगवान से झगड़ा कर के भी ना आ सकूँगी तुम्हारी महक अब भी सांसो में बसी है मेरे प्राण छुट कर नहीं छुटते  मेरे तुम्हारे बिन  यही बातें है जो अब नहीं कह- सुन पाऊँगी तुम्हारे मन के तारों से नाता नहीं टुटा मेरा जहाँ सदा के लिए सब छोड़ मायके आई हूँ तुम्हारी बन कर नहीं रह पाऊँगी  ना आऊँगी जा कर कब कौन आ पाता यहाँ पर सदा से  लौट कर पीछे मुड कर बस तुम्हे देखती हूँ अनजाना सपना है, सच तुम मेरी सोच हो या तुम्हारी सोच मैं अब भी हूँ कही पर तो आराधना राय

आज फिर कोई

दिल को आज फिर कोई और शेर याद आया है तेरे रुखसार से लिपटा हुआ  फूल याद आया है तेरे जाने की ज़िद ने ना पूछ कौन से ज़ख्म पाए है रोशनी ने जलाने की ठानी चाँदनी का मरहम लगाया है जीने वालो ने मरने के लिए देख क्या ख्वाब सजाया है आराधना राय अरु

जान लेने के बाद

क्या जीवन में शेष रहा है तुझे जान लेने के बाद प्राचीर नव श्रंखलाओं की  शिखर देख लेने के बाद उतुंग , उन्मत ललाट पाया जग ने नव विधान क्या जान पाई शुधित तृषित  चातक कि अनभिज्ञ पुकार मान कर माना ना जिसे क्या होगा उस पल का उपहास शकुन्तला का दुष्यंत पर भरत ने माना था उपकार सुन ह्दय तू भी मेरे साथ आए थे उस दिन सूर्य चन्द साथ आराधना राय अरु

अलबेली

नयनो के कोर से काज़ल चुराया है आसमान से शायद बिदियाँ लगी है लोगों ने समझा होगा कोई धब्बा है माँ के लिए नज़र बट्टू का ठिगोना है पूछती फिर भी संध्या की सहेली है रात तारों वाली कितनी अलबेली है दिन सावन था हरा -हरा सब जब था द्वार तक आती थी नदियाँ सहेली सी बारिश के मौसम में रंग अलबेला  सा माँ के हाथ की होती भजिया पकोड़ी थी एक सपना मैन देखा है माँ तुझे देखा है धुप , बारिश में ठड के महीने में देखा है चारोंपहर बस तुझे काम करते देखा है भगवान अनोखा इस दुनियाँ में देखा है आराधना राय  अरु

बारिश,

रिमझिम करती बारिश, के मौसम में सावन तूम आ कर भरमाते क्यों हो हरा -भरा जल थल है माना तूम मुझे रोज़ समझाते क्यों हो इतने  वेग से हँसती है रोज़ दामिनी द्रुतिगमिता स्मित झलका के रोज़ पूछती हाल है सावन निर्झर झर शोर मचाते क्यों हो तूम आते हो अपनी चाहत बताते क्यों हो आराधना राय अरु

ढूंढा क्यों था

दिल ये पूछे तुझे ढूंढा क्यों था हवा बही ऐसे जैसे तू वही था पन्ने के हर सफे पर नाम था ना कहना नाम लिखा क्यों था पुरवयां क्यों बही तेरे नाम की आँखों ने क्यों भेजा पैगाम भी सुना मगर तूने मुझे सुना ना था कहा तूने मगर मुझे कहा ना था फिजा ने भी कभी मुझे सुना ना था दिल ने कहा पहले तुझे सुना ना था कहती है दिल की धडकन शाम से गीत कोई दिल ने मेरे सुना ना था प्रीत तेरी-मेरी किसी ने बुनी ना थी सागर और नदी की कहानी बुनी थी सावन से मांग कर ये प्रीत भरी थी ख्वाब ऐसा किसी ने कभी सुना ना था आराधना राय "अरु"

चाँद

चाँद के साथ चाँदनी खिलखिलाती रही तेरे बहाने से खुशियाँ दरीचे से आती रही तू सहर सा मेरे दर को रोशन करती रही तू मेरे घर में चाँद बन के जगमगाती रही  वो खूबसूरत सा चेहरा ईद सा चाँद ही रही इसी बहाने "अरु"बहार बन के वो आती रही आराधना राय

जरुरी तो नहीं

भूलना वो हर बात जरुरी तो नहीं तुझे याद कर रो लेना जरूरी तो नहीं माना गर्दिश ए आलम का मारा है वो उम्र भर यूँही  उसे सोचना जरुरी तो नहीं रास्ते और निकल जाते है मंजिलों तक  यूँही महफिलों में धुमना जरुरी तो नहीं आसमान की  खिड़की से कोई देखता है  अर्श पे उम्र बसर करना जरुरी तो नहीं  तेरे लिए देख सितारें  तरस के रह जाएगे  अपना कह कर  देख लेना जरुरी तो नहीं इश्क  इबादत है,आराधना,  छु कर देखो हाथ  आ जाए  सनम कोई ज़रूरी तो नहीं आराधना राय aru

लोरी

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नन्ही सी प्रीत भली री चाँद भी आया दौड़े जी नन्ही को गले से लगाया और देर सी कहानी सुनाई आराधना राय :अरु:

उन्मुक्त: हरिवंश राय बच्चन - क्या भूलूं क्या याद करूं

उन्मुक्त: हरिवंश राय बच्चन - क्या भूलूं क्या याद करूं

डाली

हरी डाल सावन में गीत गाती थी आसंमा को देख मुस्कुराती थी झूम उठती थी हवा के हिलोर से मस्त हो सब को भाती थी धुप में बाहें फैला तकती थी आकाश सुमधुर सपने नभ को सुनती थी। मन की धरती हरिया जाती थी। पात -पात पे मुस्कान आती थी। इक दिन सूखी डाल को देख रो पड़ी व्याकुल हिय से कॉप कर चुप रही किसने अनगिनत प्रहार डाल पे किये थे देख कर स्वयं वृक्ष भी रो पड़े थे। मन चोट करने वाले को भुला नहीं पाता कुठारा घात सह के कुछ कर नहीं पाता निष्प्राण हो डाल ने जीना सीख लिया था रह- रह के विधाता से पीड  कहना सीख लिया था। एक दिन फिर कोई आया मगर पेड़ के पास कुल्हाडी रख बैठ गया, इतने  में सर्प आ पहुंचा। वहाँ , डाल ने आवाज़ ईश्वर को लगाई सुनते हो तुम बेजुबान की भी पर इतनी नहीं निष्टुर किसी के प्राण लूँ हो सके तो कुछ और सजा देना इसे मेरी तरह जीते जी निष्प्राण कर देना इसे सर्प। ने सुना दंश दे मुस्कुरा गया। आज इसमें प्राण है मर ना पायेगा अभी। दुसरो पे घात जो करते दिन रात है, एक दिन  ईश्वर भी करते उन्ही पे प्रहार है। आराधना राय अरु

सावन

बूंद बूंद बन कर अम्बर से सावन की झड़ी लगी है मन के ताने बाने पे किस की नजर पड़ी है हरी वसुंधरा जल-मग्न हो कर क्या व्यथित हुई है तृषित चातक को स्वाति की बूंद कितनी मिल पाई है अम्बर के हिय पे सर रख के नीर बहा कर आई है सावन में किस के मन में नव हिलोर सी मचा आई है रीती रह न जाये सखि बरखा की ऋतु देख आई है आराधना राय अरु

चली जाती है

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साभार गुगल रात में आ के चली जाती है दिन उजालों संग बिताती है दूर से आ कर मुझे बुलाती है तेरी आवाज़ मुझे भरमाती है ज़िन्दगी रंगों में ढल के आती है मुझे क्यों रात दिन ये सताती है रूप कि चादर सलोनी ओढ कर कितने रूप दिखा कर तू जाती है जब मिली धुप सी मिली मुझसे छाँव कि रंगीनी क्या दिखाती है ज़िन्दगी पास रह कर तू जाती है कैसे इल्जाम लगा के तू रुलाती है आराधना राय "अरु"

बात करती हूँ

 मैं हिन्द की बात करती  हूँ  मुस्लिम की ना हिन्दू बात मैं इन्सान कि इंसानियत की बात हँस कर  तुमसे करती हूँ पेट जला कर धर्म क्या बनाऊँ धर्म पे आस्था मैं भी रखती हूँ कृष्ण को ये युद्ध कब प्यारा था राधा नाम ले प्रेम को पुकारा था प्रेम का आधार मैं क्या बतलाऊँ इन्सान बन इंसान का मन पाऊँ रक्त- पीती हूँ दुराचारियों का मैं काली - दुर्गा हो के बात कर जाऊँ आराधना राय "अरु"

बदरा बरसे

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साभार गुगल रिम- झिम बदरा बरसे मन ही मन हम तरसे श्याम भई ऋतू काली अखियाँ भरी है जल से घर अंगना सब बिछडा फूटे भाग्य से सब कलसे रैना थी मनवाली मनकी मिले नहीं साथी मन के आग लगता बदरा आया मिले नहीं पिय मोरे कलसे आराधना राय "अरु"

मेरी सांसों में

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साभार गुगल मेरी सांसों में मेरी सांसों में कविता ------------------------------------ तुम बसें हो मेरी सांसों में  मेरी धड़कन में तुम समाते हो  मैं थरथरा रही हूँ लों की तरह तुम मेरे साथ -साथ जलते हो गुम रह कर देख ली दुनियाँ तुम अपनी साँस से महकते हो तेरे संग रह कर पा लिया है तुझे तुम मेरे रोम- रोम में बसते हो मेरी नज़रों में धुंध सी रहती है तुम किसी धूप सा मुस्कुराते हो तेरे कदमों में ज़माना पड़ा "अरु"तुम साया बन कर आते हो आराधना राय "अरु"

आस्था के प्रश्न

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ईष्या द्वेष के मारों का हाल ना पूछे स्वार्थ हुआ मजहब कुछ हाल ना पूछे -------------------------------------------------- स्वार्थ से हुए अंधे धृतराष्ट्र दुःशासन यहाँ सभी कर्म बन गया किसका कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र तभी आस्था के प्रश्न पर सब यहाँ मारीच से निकले ईश्वर जिनके लिए छलिया कपटी धूर्त निकले मंदिर , मस्जिद, गिरजा बना कर पूजते है सभी वक़्त आने पूजा का घर जला जाता है हर कोई आज पूज लो भगवान जितने बना बैठे हर कही समय कि धारा में वो भी बह जायेगे कहीं ना कहीं बिजलियों के बीच रहता है जैसे हर यहाँ हर कोई गरीब का साया बिना बात छीन लेता है हर कोई ईशु, मीरा, सुकरात ज्ञानेश्वर बिष पी जी गए सभी मसीहा आ कर दुनियाँ में रो कर क्या गए यहोँ सभी भगवान को परख डालोगे परख नालियों में तूम सभी स्वार्थ के क्या कहने स्वयं को विधाता बुलाते हो सभी आराधना राय "अरु"

नवगीत--- हवा हूँ

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साभार गुगल बह रही हूँ हवा हूँ मैं खुल के बागों में बहार दे हल्की सी थपकी दी है सावले मुखड़े को संवार दे बरस ऐसे कि भीग जाए मेरा मन और तेरी चूनरी आस जन्मों कि हो पूरी फूल - फूल पे निखार दे बह रही हूँ हवा हूँ मैं  रूप -रंग  धरा संवार ले शहर , जंगल , गाँव का भेद नहीं करती हवा हूँ मस्त, अल्हड, चिर योवना जीवन दे मुस्कुराती हूँ हवा हूँ, हवा बह रही हूँ मैं बहल - कर बहलाती हूँ आराधना राय "अरु"

समय

एक वृत में सभी को समेटे दाए से बाए पेंडुलम हिलाते समय अपने मोल को जता के चौबीस कोणों में विभाजित कर सब को चुपचाप बाँध  ढो रहा है पल - पल में अपनी अहमियत जता नाद से सुर  बना के कहता है आदमी तू आदमी के साथ कैसे  अभी तक जिंदा है मशीन है सभी सुबह से शाम काम करते  है कहते है मन तेरा अभी तक परिंदा है ईष्या द्वेश में हारी सब कि जिंदगिया दुसरे के दुख से सब ही आहत है शिकायतों का बाज़ार समेटे सब अपनी अपनी मन कि गाँठ को सम्हाल कर बैठे है आदमी समझता रहे खुद को खुदा हर शय को समय ने बाँध समय हुआ  "अरु"सब से ही बड़ा आराधना राय "अरु"

पहचान हुई

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2----- कविता मेरे दुख से तेरी  ही पहचान हुई मन कि बातों कि शुरुआत हुई लगा सालने मुझे आकाश नया मेरे संसार कि कैसी यह बात हुई रात  मुझे से देख के खामोश हुई शोर  मचा के पवन  परेशान  हुई चूल्हे कि जली आग धौकनी  हुई मुँह फाड़े देख रही व्याकुल आँखे चूल्हे कि रोटी जल कर खाक हुई भूखे पेट पे  अत्याचार कि रात हुई गीत लिखूं कैसे किस को बता मुझे घर बात जब चोपालों में जा आम हुई हँसी चन्दा कि जैसे मन्द सी ही हुई आँख के आँसूं पीने कि ना बात हुई चुप रह कर दुख से  तेरी पहचान हुई मेरा दुख जब तेरा दुख बन नुस्काया समझ ले उस दिन तुझ से पहचान हुई मन मुदित हुआ कह कर क्या बात हुई आराधना राय "अरु"

कविता मैं और तूम

तुम्हें बोलने कि आदत नहीं मैं सब कुछ बोल  देती हूँ अंतरमन अपना खोल देती हूँ तूम बंद किताब कि तरह लगते हो चाहूँ भी पढ़ ना पाऊँ ऐसे लगते हो तुम्हारे मूक बोलों को समझ नहीं पाती हूँ मन कि तुम्हारी थाह ना पा कितना पछताती हूँ मैं बातें कह कर भी संवेदन हीन हो जाती हूँ तुम्हारे अस्तल में समुन्दर पाती हूँ तुम्हारी आँखों से जब भाव गहराते है मैं जल कि मीन  हो जाती हूँ तूम बिना कहे सब कुछ जान लेते हो मैं नीर बहा कर भी समझ कहाँ पाती हूँ मैं पल में रूठ कर  मान जाती हूँ तुम रूठे तो फिर कहां मान पाते हो क्षमा  को सिर्फ किताबों में पाया था तुम्हे देखा तो  किताबें झूठी लगी दया , क्षमा ,प्रेम  सहनशीलता का तूम से सच्चा अर्थ जाना था आराधना राय अरु

क्या कहिये नज़्म

प्यार ,इश्क, लगावत का क्या कहिये डूब कर दरिया पार जाने का क्या कहिए उसने निभाया ही नहीं ज़माने का चलन उसकी रहगुज़र से गुजरने का क्या कहिए चाँद तारों का सफर मैंने किया ना कभी उसके बामों दर कि सहर का क्या कहिए प्यार फसाना था उसने निभाया ही नहीं इश्क़ के ऐसे  कारोबार का क्या कहिए आराधना राय अरु

माँ

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साभार गुगल सुख में सब साथ रहे है दुख  तूने पहचाना है माँ तेरी बातों को मैंने माँ बन कर ही जाना है नाप तोल के बोल रहे है  सूना मन क्या जाना है बोली प्रेम कि बोली उसने करना प्रेम को ही जाना है सारे संबंधो के ताने बाने है तुझ   से मिलकर  जाने है माँ तेरे आँचल में छिप कर लगाती दुनियाँ दीवानी है माँ तुझ को छोड़ कर कोई जिंदगी के ना कोई माने है तू रूठी तो मेरा मन ना लगे तुझ से जुडे कितने फसाने है आराधना राय "अरु"

मीत ---- गीत

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साभार गुगल बसे हो मेरी सांसो में तूम धड़कन में छा जाते हो बसे हो मेरी................................ तुम अपनी साँसों से हर पल ही महकाते हो बसे हो मेरी................................ लो बनकर जीती हूँ अबतक तूम संग मेरे जल जाते हो बसे हो मेरी................................ देख ली इस दिल की बैचेनी मर कर इश्क़ को पाते हो बसे हो मेरी................................ पास रहो या दूर रहो तुम तुम मुझ में रह जाते हो बसे हो मेरी................................ सपना बन कर आने वाले आँसू बन क्यों आते हो बसे हो मेरी....... सुख दुःख के साथी हो मेरे मीत मेरे अनुरागी हो बसे हो मेरी.......

उदासी नज़्म

तमाम ख्वाहिशें पल में खाक हुई बात ही बात में क्या खता हुई किसी दरख्त का साया पासबां नहीं धुप रास्तों कि जब नसीब हुई पाँव  नहीं दिल पे छाले पाए है  गम मिरे नाम इतने आए है बू - ए आवारा पूछती रही गम का सबब भटकती रही थी यू  भी तेरे बगैर कहीं शाम के बाद  तेरे  निशां होंगे कहाँ वक़्त से गुज़रें तो अब हम होगे कहाँ जश्न रुसवाइयों का मानते भी क्यों सामने खुदा रहा अरु उसे भुलाते भी क्यों आराधना राय अरु

दुख में कितना सुख

चिलचिलाती धूप जब  खूब शोर मचा आती है तपती- हुई धरती  सूनी हो बंजर सी हो जाती है चूम - चूम कर  रो कर बिछड गए जो शाखों से पात- पात पे शोर मचा मुझे बतला कर जाती है पुरवैया  दुःख में कितना सुख दे कर तू जाती है मन के कोनों को शांत भाव से भर कर जाती है धरती को साया देने वाले शोक ताप  हरने वाले तुझे कानों में कोई मधुर गीत सुना कर  जाती है जल कि प्यास  कितना  मन को तरसा जाती  है प्यास पंछी की बुझ कर अनबुझी सी रह जाती है अदिति रूठ कर अंत-सलिला सा हाल बताती रही  दुख में अपनी आवाज़ अब किस से छुपा  जाती है मानो दुख से दुखी विधाता अग्नि प्रखर बरसता है धरणी के दुख से जैसे ईश्वर तुम्हारा  कोई नाता है तृषित , शुधित जन - क्रंदन का देव मात्र ही दाता है पंछी के  गान सृष्टि तुझ को सब ही अर्पित हो चले अम्बर धरती के लिए कितने अश्रुधार बहा  जाता है दुख में अपना सा साथ ही सुख कितना दे कर जाता है हवा का चलना तेरा मुस्कुराना याद करा कर जाता है आधात हदय को तोड़ कर आँखों की बरसात से भीगा नीर दुख में सुख का बहाना बना कर कभी आ जाता है आराधना राय "अरु"

शक्तिमान

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शक्तिमान ------------अतुकांत --------------------------------------- सुना था चेतक ने रण में महाराणा की जान बचाई थी हे परम वीर ओ शक्तिमान तूने क्यों जान गवाई थी बिन बात आत्मघाती हमला किस कि आन पे बन आई थी पशु समझ कर किस कठोर ने लाठी तुझ पर क्यों बरसाई थी मनुज ने दाव अपने खूब चलाए है बेजुबान पे कितने अत्याचार कराए है गो - माता है , धरणी धर है उस पर राजनिति कर मुस्कुरायेगे हिंदू - मुस्लिम भेद जो करते वो शक्ति का मान नहीं रख पायेगे ओ भारत के प्रहरी रण वीर चेतक या शक्तिमान तुझे नहीं भूल पायेगे आराधना राय अरु

चाँद

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लुक छिप कर चाँद बहलाता है तू घने बादलों से निकल छिप जाता है तू सुना कर हाल  दिल के सब्र ओ करार के मेरी और देख जाने क्यों मुस्कुराता है तू दीवाना कहूँ या हँस कर कातिल कहूँ तुझे जाने  क्यों पीछे पीछे चला आता है तू स्याह रातों की राह का साथी बन कर ना जाने किस को राह दिखलाता है तू छत पे निकल कर कुछ कह जाना तेरा आँगन में अटक कर पहरों ताक जाता है तू आराधना  राय अरु

सदा रहेगा-------------------अतुकांत

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साभार गुगल  दुःख का सुख में  साथ सदा रहेगा  चोली- दामन सा  यही रिश्ता रहेगा अश्रु पी के अधरों पे   मुस्कान रखेगा   जिया सब के लिए   इंसान वही बनेगा   उम्र की आड़ी तिरछी   लकीरों के पार कहेगा   धूमिल होती कहानियों    के बीच  कहानी कहेगा    मौन बन  चुपचाप  इन    आँखों से दुख बन झरेगा    अंदर ना जाने कौन  फिर    मर कर  तेरे रंग में जिएगा   आराधना राय "अरु"

माँग लूँगी अतुकान्त

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 साभार गुगल आज नहीं तो कल माँग लूँगी रेत के तपते सहरा से तपिश बरसती भीगती बारिश से नमी आँख कि माँग लूँगी जीवन तुझे जीने के लिए सुख नहीं कुछ दुःख ही माँग लूँगी दूर तक जाते काफ़िले से माँग लूँगी इंतज़ार के लम्हे यह ना सोचना तेरी ख़ुशी  तुझ से माँग लूँगी  मर कर मौत नहीं  जीवन मैं तुझे फिर जीयूँगी डर नहीं लगता कि ढल जाऊँगी किसी  धुप कि मानिंद जिंदगी तुझे हार कर मैं तुझ से जीत माँग लुंगी "अरु" रुकता नहीं कोई यहाँ तेज़ हवा सा बह इक दिन मैं भी बहुंगी, आज नहीं मैं कल फिर तुझसे जिंदगी नही मौत के पीछे छिपी धड़कन मांग लूँगी

रात बहारों के नग्में गाती है

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साभार गुगल ------------------------------------------- चाँद को देख जाने क्यों मुस्कुराती हो हवाओं का मंद मंद सा राग सुनाती हो जैसे देखा हो पहली- पहली बार तुम्हें अनजान बन सामने मेरे आ जाती हो तुम्हे इंतज़ार है मेरा कितनी सदियों से एक अनबूझी पहेली बन  सामने आती हो नजर मिला , कभी झुका कहीं बातें तुमने सुबुगाहट लिए मन में  चुपचाप रह जाती हो शबनम पीरों आँखों में किस बात का अहसास कराती हो शीतल छांव सा चंवर  डुला मन सहला जाती हो धुप की तपिश में सुलगता  हुआ तेरा चेहरा लगा ओंस से भीगी  बातों से मन  के घाव भर जाती हो मेधवर्णी श्यामल तृप्त भाव से देख किस को समझाती हो रात के डोले में बैठ बीते दिन याद कराती हो तूम कुछ और नहीं  स्वपन हो क्यों हँस कर मुझे तूम बताती हो आराधना राय ''अरु''

दो धड़ी अतुकांत कविता

वक़्त के दरमियाँ खड़े रहकर साँस ले लूँ दो धड़ी फुरसते मिलती है किसको जब जिंदगी हो दो धड़ी तूम ना मानो बात मेरी मन  कि चुभन  कह जाएगी तेरे मेरे मिलने से पहले  धडकने रुक जाएगी भागते- दौड़ते जिंदगी के काफ़िले है कौन किसको देखता है और जी रहा है दो धड़ी बात अपनी कह कर चुप रह जाऊँगी दो धड़ी गर  सफर बाकी रहा तो मिल लूँगी दो धड़ी तेरे मेरे बीच की दीवार भर है दो घडी आराधना राय "अरु"

दोहे

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  कौआ करें काँव - काँव, कर्कश सी आवाज़  कूकती है कोयलियाँ,  करें जगत में राज़  मीठी बोली काम की, सब देगे ही ध्यान  कड़वा कहना है बुरा, जग का रखिए ज्ञान विष लेता है प्राण ही ,  सर काटे तलवार मीठी - मीठी बात से , जी भर मार कटार मारे - मरे न जो कभी, करें उसे बदनाम ह्रदय धात है शूल सा ,जाए परम के धाम तिरछी दृष्टि काक की , देखत है हर कोय ढोंगी करता ढोंग है , जान न  पाता कोय सच्चा संत क्या करे,   जब उलझे व्यवहार भूल गई संसार कि अरु, तज के लोक विचार आराधना राय "अरु" दोहा एक ऐसा छंद है जो शब्दों की मा त्राओं के अनुसार निर्धारित होता  है.  इसके दो पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं.  पहले चरण  को विषम चरण तथा दूसरे चरण को सम चरण कहा जाता है. विषम  चरण की कुल मात्रा 13 होती है तथा सम चरण की कुल मात्रा 11 होती  है.  अर्थात दोहा का एक पद 13-11 की यति पर होता है. यति का अर्थ है  विश्राम. यानि भले पद-वाक्य को न तोड़ा जाय किन्तु पद को पढ़ने में अपने आप  एक विराम बन जाता है.    

तेरी निगाहें

रोज़ आ कर बहला जाती है तेरी अनगिनत खताए करती है ना जाने कितनी चुगलियाँ तेरी ख़ामोश निगाहे गिर पडूँ तो उठा लेती है अक्सर तेरी दो पसरी हुई बांहें माँग लेता हूँ खुदा से जीने की कुछ हसीन सी राहें कुछ नहीं कहती बातें करती है बहुत चुपचाप तेरी निगाहें आराधना राय "अरु"

नव गीत

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गरमी कि ऋतु अलसाई चली आई अब ना सुहाए  काज़ल मोहे हाय पसीने से तर पसीजे से जाए बिंदी मेरी बही चली जाए ग्रीषम ऋतु मोहे ना सखी भाए धरती ने बदला रुख अपना हाय - हाय शर्बत ,ना लस्सी जी कहीं ना लग पाए सूरज से आँख मिलाना नहीं भाए सूखी धरती का दुःख अखियन देख नहीं पाए कोयल कि कुक चैन दे जाए गरमी बातें चांदनी में नहा जाए आराधना राय "अरु"